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सरिए से बनाई मोहक कलाकृतियां……..

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अनेकों बार हम कुछ बेकार पड़ी चीजों को महत्वहीन समझकर फेंक देते हैं।परंतु बेकार तथा व्यर्थ समझी जाने वाली चीजों से भी उत्कृष्ट तथा आकर्षक वस्तुएं तैयार की जा सकती हैं।आईटीआई नरेला में संचालित वेल्डर व्यवसाय के शिल्प अनुदेशक नसीब सभ्रवाल भी अपनी ट्रेड के प्रशिक्षुओं के साथ मिलकर बेकार पड़ी लोहे की वस्तुओं से बेहतरीन कलाकृतियां बनाने के लिए जाने जाते हैं।नसीब सभ्रवाल अब तक कार्यालय में व्यर्थ पड़ी लोहे की वस्तुओं से अनेक प्रकार की मुंहबोलती कलाकृतियां तैयार कर चुके हैं।यह छोटी - छोटी कलाकृतियां बरबस ही लोगों का मन मोह लेती हैं।आईटीआई नरेला की वेल्डिंग कार्यशाला में नसीब सभ्रवाल प्रशिक्षुओं के साथ मिलकर बेकार पड़े सरिए से अभी तक हिरण , जिराफ , कुत्ता , हाथी तथा घोड़ों की प्रतिकृतियां बना चुके हैं।         यह प्रतिकृतियां देखने में इतनी आकर्षक हैं कि यह लोगों को अनायास ही अपनी तरफ खींच लेती हैं। तन्मयता से अपने कार्य में तल्लीन रहने वाले शिल्प अनुदेशक नसीब सभ्रवाल पशुओं की प्रतिकृतियां तैयार करने के अलावा विविध प्रकार के मॉडल बनाकर भी आईटीआई नरेला का नाम रोशन कर रहे हैं।

इतिहास बन गई तख्ती........

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पंद्रह-बीस साल पहले स्कूलों में  बच्चे सरकंडे से बनी कलम और दवात की सहायता से लकड़ी से बनी तख्ती पर वर्णाक्षरी सीखते थे। स्कूल में उन दिनों  तख्ती लिखना नियमित दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था। दरअसल तख्ती लिखना तब पठन-पाठन का एक बेहद आसान और सरल तरीका माना जाता था। क्योंकि पाठ्यक्रम का अधिकांश हिस्सा विद्यार्थियों को पढ़कर तथा तख्ती पर लिखकर ही कंठस्थ हो जाता था।  विद्यार्थी स्कूल में अपने सहपाठियों के साथ बैठकर समूह में तख्ती लिखने का कार्य करते थे। इससे पाठ्यक्रम पर उनकी मजबूत पकड़ बन जाती  थी। धीरे-धीरे स्कूलों में  तख्ती लिखने का प्रचलन  कम होता गया तथा एकाएक स्कूलों से तख्ती बिल्कुल ही गायब हो गई। तेजी से बदलते परिवेश में बहुत पीछे छूट गई  तख्ती और दवात की जुगलबंदी। अब लकड़ी की तख्ती तथा स्याही की दवात अतीत की स्मृतियों में पूर्णतः दफन हो चुकी हैं। मुल्तानी मिट्टी से लिपी-पुती तख्ती उस जमाने में स्कूल की मुख्य पहचान मानी जाती थी। तब तख्ती लिखना पांचवीं कक्षा तक अनिवार्य भी था। असल में तब तख्ती लिखना लिखाई सुधार का बेहतरीन विकल्प समझा जाता था। तख्ती लिखने से पहले उसे मुल्तानी मिट्टी

कृष्णगाथा.…..

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                                                                                                                                       कृष्णगाथा......... बंगाल की गलियां गूंज रही हैं। महामंत्र के अनंत आह्लाद से गूंज रही हैं। चैतन्य नाच रहे हैं। अकेले नहीं, साथ में पूरा जंगल नाच रहा है। मृदंग, झांझ, मंजीरे हर वाद्य पर वहीं नाम, वहीं रट... राजस्थान में दरस दीवानी बनकर मीरा डोल रही है। महलों के ठाठ-बाट छोड़ सांवलिया वैद को खोज रही है गली-गली। तमिल में आलवार और अंडाल, कन्नड़ में अक्क और माधवाचार्य, नरसी गुजराती में, विद्यापति मैथली में, जयदेव संस्कृत में, शांगदास डोगरी में और ब्रजभाषा में अष्टछाप के कवि गा रहे हैं। उसी के गीत, उसी की तान, उसी के राग और हरिदास... सखी भाव से वे भी तो झूम रहे हैं उसी एक के आकर्षण में। संगीत फूट रहा है। तानपूरा पुलक से बज रहा है। अकबर हैरान है, आखिर दो वस्त्र लपेटे बैठा ये संत किसके ऐश्वर्य में डूबा है! ये कौन-सी मस्ती है, जो राजा को न मिली फकीर को मिल गई? आखिर ये कौन-सा भोग है, जो सारे योगों से परे है? भला क्या है, जो पा लिया है इसने। भला क्या है, जो भर गया ह